मन का मैल


कृष्णा नदी के किनारे एक महर्षि का आश्रम कृ थ था। अपने शिष्यों सहित वह वहीं रहते थे। आसपास के गाँवों में उनकी काफी ख्याति थी।


साल में एक बार महर्षि गाँवों में जाकर लोगों के दुःख-दर्द को सुनते एवं उन्हें उचित सलाह भी देते। बदले में गाँव वाले उन्हें कुछ-न-कुछ चीजें उपहार में दे दिया करते और सालों की तरह इस साल जब महर्षि गाँव में पहुँचे तो लोगों को


बिजली की तरह उनके आने की सूचना मिल गयी। खुली जगह में एक घने पड़े के नीचे उन्होंने अपना आसन जमाया। देखते ही देखते गाँव वालों बात कही। की भीड़ वहाँ जमा हो गयी। एक-एक कर महर्षि सबका दुःख-दर्द सुनने लगे। उन्हें उचित सलाह भी देते जाते। साथ ही उनके द्वारा लाए गए उपहार को स्वीकार करते जा रहे थे। काफी देर बाद जमींदार साहब सुसज्जित रथ पर सवार होकर वहाँ पहुँचे। उनके तन पर बेशकीमती वस्त्र थे। गले में मोतियों की माला एवं दोनों हाथों की

अंगुलियों में हीरे जड़ित अंगुठियां थीं। रथ से उतरकर महर्षि के करीब आ उन्हें प्रणाम कर वह बोले, "मेरे पास सभी कुछ है। मगर मन अशांत है। कुछ उपाय बताइए।"


जमींदार की क्रूरता और उसकी दुष्ट नीयत से महर्षि भली-भाँति अवगत थे। अतः वह बोले, 'अपनी मूर्खता की वजह से तुम्हारे मन में अशान्ति है।"


“कैसी मूर्खता?" किसी तरह अपने क्रोध को दबाकर जमींदार ने महर्षि ने पूछा।


महर्षि ने पास रखे एक नारियल को हाथ में लेकर कहा, “अगर इसका बाहरी हिस्सा साफ-सुथरा हो और अंदर का फल सड़ा हो तो इसका क्या महत्व है?" 


"कुछ नहीं।"


“बाहरी हिस्सा तन है तो अंदर का फल इसका मन । तुम्हारी मूर्खता यही है कि तुमने अपने तन को तो साफ-सुथरा रखा मगर मन को सड़ा दिया। मन के मैल की वजह से ही तुम्हारे जीवन में अशान्ति है। तुमने गरीब जनता का शोषण ही नहीं किया है, उन पर अत्याचार और अन्याय भी किया है जिनसे तुम्हारा मन काफी मैला हो चुका है? मन में, जब मैल है तो वहाँ शान्ति कहाँ से, कैसे आएगी?" महर्षि ने दो टूक बात कही ।

जमींदार सहमा। फिर बोले, "अब क्या करूँ?"


"सद्व्यवहत और परोपकर करके ही अपने मन के मैल को धोकर साफ कर सकते हो तभी सच्ची शान्ति तुम्हें मिलेगी। "


अपनी भूल का एहसास जमींदार को हो गया। उन्होंने महर्षि की बात मान ली।



By:- Sant Nirankari Mission